चिंताजनक …देश की हर तीन में से एक महिला लैंगिक हिंसा की शिकार, बराबरी पर लाने में लगेंगे 200 साल
अमित बैजनाथ गर्ग
लिंग आधारित हिंसा किसी व्यक्ति के विरुद्ध उसके लिंग के कारण निर्देशित हिंसा है। वैसे तो महिला और पुरुष दोनों लिंग आधारित हिंसा का अनुभव करते हैं, लेकिन पीड़ितों में अधिकांश महिलाएं और लड़कियां होती हैं। लिंग आधारित हिंसा एक ऐसी घटना है, जो लैंगिक असमानता से गहराई से जुड़ी हुई है और सभी समाजों में सबसे प्रमुख मानवाधिकारों के उल्लंघनों में से एक है। यह मां के गर्भ से मृत्यु तक महिलाओं के पूरे जीवन चक्र में प्रकट होता है। लिंग आधारित हिंसा की कोई सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि नहीं होती तथा यह सभी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि की महिलाओं और लड़कियों को प्रभावित करती है।
प्रत्येक लड़की और लड़के को जीवित रहने और आगे बढ़ने का समान अवसर मिलना चाहिए। बचपन विशेषज्ञ प्रत्येक बच्चे के लिए समान अधिकारों की वकालत कर रहे हैं। फिर भी बचपन से शुरू होने वाला लैंगिक भेदभाव बच्चों से भी उनका बचपन छीन रहा है और उनकी संभावनाओं को सीमित कर रहा है, जिसका दुनिया की लड़कियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। एक लड़की को उसके अधिकारों से वंचित किए जाने, स्कूल से रोके जाने, शादी के लिए मजबूर करने और हिंसा का शिकार होने की बहुत अधिक संभावना है। अगर उसकी बात सुनी भी जाती है तो उसे कम महत्व दिया जाता है। बचपन पर यह हमला राष्ट्रों को प्रगति के लिए आवश्यक ऊर्जा और प्रतिभा से भी वंचित करता है।
एक अनुमान के अनुसार परिवर्तन की वर्तमान दर पर लैंगिक समानता हासिल करने में अभी 200 साल से अधिक का समय लगेगा। लैंगिक समानता अभी सिर्फ अमेरिका में अस्वीकार्य है। हम सभी साथ मिलकर शुरू से ही एक अधिक समान दुनिया बना सकते हैं। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेदभाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2023 में भारत 146 देशों में 127वें स्थान पर है। एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में हर तीन में से एक महिला को अपने जीवनकाल में एक बार अपने साथी के हाथों हिंसा का सामना करना पड़ता है। मतलब अनगिनत महिलाएं कई बार इस पीड़ा से गुजरती हैं।
लैंगिक हिंसा एक वैश्विक महामारी है, जहां लगभग 27 प्रतिशत महिलाएं अपने जीवनकाल में कभी न कभी शारीरिक या यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं। खासकर दक्षिण एशिया में अंतरंग साथी के हाथों आजीवन घरेलू हिंसा सहन करने के मामले वैश्विक औसत की तुलना में 35 प्रतिशत ज्यादा हैं। इसके लिए पितृ सत्तात्मक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था और रूढ़िगत परंपराएं जिम्मेदार हैं, जो लैंगिक भूमिकाओं को परिभाषित करती हैं। महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध की गई हिंसा का प्रभाव भावनात्मक स्तर पर काफी गहरा होता है और इसके कारण उन्हें अपनी सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक जरूरतों में रुकावटों का सामना करना पड़ता है।
दुखद पहलू यह भी है कि एक इंसान अपनी पूरी क्षमता का दोहन नहीं कर पाता। हिंसा पीड़ित लड़कियां और महिलाएं अक्सर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चे पर पिछड़ जाती हैं और समाज में उनकी भागीदारी पर भी प्रभाव पड़ता है। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक है। इसके चलते वैश्विक स्तर पर 15 खरब अमेरिकी डॉलर (वैश्विक जीडीपी का 2 प्रतिशत) का नुकसान उठाना पड़ता है। लिंग आधारित हिंसा के विभिन्न कारणों में सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कारण हैं। मसलन, भेदभावपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कानून, मानदंड तथा व्यवहार, जो महिलाओं और लड़कियों को हाशिये पर रखते हैं और उनके अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में विफल होते हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सही ठहराने के लिए अक्सर लिंग संबंधी रूढ़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। सांस्कृतिक मानदंड अक्सर यह तय करते हैं कि पुरुष आक्रामक, नियंत्रित करने वाले और प्रभावी होते हैं, जबकि महिलाएं विनम्र, अधीन और प्रदाताओं के रूप में पुरुषों पर निर्भर करती हैं। ये मानदंड एक प्रकार के दुरुपयोग की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। वहीं पारिवारिक, सामाजिक और सांप्रदायिक संरचनाओं का पतन और परिवार के भीतर महिलाओं की बाधित भूमिका अक्सर महिलाओं तथा लड़कियों को जोखिम में डालती है।
इसके निवारण के लिए मुकाबला करने वाले रास्तों-तंत्रों के जोखिम एवं सीमा को उजागर करती है। लैंगिक समानता की राह में कई न्यायिक बाधाएं भी हैं। न्याय संस्थानों और तंत्रों तक पहुंच का अभाव हिंसा और दुर्व्यवहार के लिए दंड के भय की समाप्ति की संस्कृति उत्पन्न करती है। वहीं पर्याप्त और वहनीय कानूनी सलाह और प्रतिनिधित्व का अभाव भी है। इसके अलावा पीड़ित-उत्तरजीवी और गवाह सुरक्षा तंत्र का भी पर्याप्त अभाव है। अपर्याप्त न्यायिक ढांचा, जिसमें राष्ट्रीय, पारंपरिक, प्रथागत और धार्मिक कानून शामिल हैं, जो महिलाओं-लड़कियों के साथ भेदभाव करते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)