बंगाल मोदी—शाह नहीं हारे, यहां हारी निर्लज राजनीति, निष्ठुर सरकार और दिवालिया मानसिकता

तेजपाल नेगी

बंगाल में भाजपा नहीं पूरी केंद्र सरकार हारी है जो पीएम से लेकर एचएम तक सभी पद संभालने के बाद भी एक सूबे की मुख्यमंत्री को असफल साबित करने के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ उस प्रदेश की जनता को देने की राह में रोड़े अटका रही थी। बंगाल में अमित शाह नहीं बल्कि वह निर्लज राजनीति हारी है जो महामारी के दौर में भी बिना मास्क लगाए सजे धजे मंचों से देशभक्ति के नारे लगा कर अपने ही देश की जनता को सभाओं में बुलाकर कोरोना के सामने चारे की तरह उनका इस्तेमाल कर रही थी।

बंगाल में नरेंद्र मोदी नहीं वह निष्ठुर राजा हारा है जो एक घायल महिला के प्रति संवेदना व्यक्त करने के बजाए अपनी सभाओं में ‘दीदी ओ दीदी’ कह कह कर उसका मजाक उड़ा रहा था और सच तो यह है कि बंगाल में कोई नहीं जीता यहां सिर्फ और सिर्फ हार मिली है निष्ठुर राजनीति को, दिवालिया हो चुकी राजनीतिज्ञों की सोच को और जनता को मूर्ख् समझने वाले हमारे हुक्मरानों को। यहां जीत मिली है तो उस जनता, किसानों और बेरोजगार जवानों को जो अपनी मांग को मनवाने के लिए सरकार के सामने गिड़गिड़ाने के बजाए झंडा उठाकर सरकार के सामने सीना तान कर खड़ा होने की हिम्मत जुटाने से भी पीछे नहीं हटे। जिनपर आतंकवादी, राजनीतिबाज और आंदोलनजीवी होने के आरोप लगे लेकिन जो डिगे नहीं और जिद्दी सरकार की आखों में आखें डालकर कह गए कि हाथ से हाथ मिले तो तस्वीर बदल सकती है।

कल जो बंगाल की तकदीर बदलने निकले थे आज शाम से ही अपनी तस्वीर बदलने की कवायद में जुट जाएंगे। मामला एक प्रदेश का ही नहीं है अब पूरे देश का हो गया है। यह मामला प्रदेश का ही रह जाता यदि पीएम से लेकर एचएम और भी तमाम केंद्रीय मंत्री और भाजपा शासित प्रदेशों के मुखिया इसे प्रदेश स्तर का ही बने रहने देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसे नाक का सवाल बना दिया गया। इसे जीवन मरण का चुनाव बना दिया गया। जीत तो नहीं मिली लेकिन मरण मिला उन सैकड़ों लोगों को जो कोरेना महामारी के इस दौर में लाखों लोगों की सभाओं में या तो बुलाए जाने पर पहुंचे या फिर अपनी मर्जी से अपने राजनीतिक भगवानों को देखने की लालसा लेकर पहुंचे और बीमारी के मायावी चंगुल में जा फंसे।

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हमारे नेता धूर्तता की सीमाएं तोड़कर बिना मास्क पहने बड़े बड़े भव्य मंचों से उन्हें ललचाते रहे।
बंगाल का चुनाव राष्ट्रीय होने का दम भरने वाले उस मीडिया के एक उस वर्ग की भी हार है जिसने सत्तालोलुपता का चश्मा चढ़ा रखा था, जो महंगाई पर सरकार का बचाव करने के लिए सबसे पहले आ खड़ा होता है, तो आतंकवादी घटनाओं को सरकार के हिसाब से गंभीर और अगंभीर बताने के लिए अतार्किक विश्लेषण करने आ बैठता है। वह मीडिया जिसे लोगों के सिर पर नाच रही महामारी की कोई चिंता नहीं होती लेकिन राज्य में होने वाले चुनाव पर सरकारी बाजा बजाने के लिए उसके बड़े—बड़े एंकर लोगों के बीच पहुंचकर सरकार के पक्ष में माहौल खड़े करने लगते हैं।

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बंगाल का चुनाव सबक है उस अफसरशाही के लिए जिसके लिए महामारी में प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियों में लाखों के भीड़ से कोई परेशानी नहीं होती लेकिन सड़क पर अपनी मां के इलाज के लिए बाइक पर दवा लेने निकले एक बेटे से देश में महामारी का प्रकोप बढ़ जाने का संदेह पैदा हो जाता है। और उसका पिछवाड़ा सुर्ख कर दिया जाता है।

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बंगाल चुनाव चेतावनी है उस चुनाव आयोग के लिए भी जो बंगाल जैसे राज्य का चुनाव आठ चरणों में करवाने का फैसला करता है, ताकि बड़े नेताओं को चुनाव प्रचार का भरपूर मौका मिल सके। और हुक्मरानों की चाहत के लिए आखिर तक अपने फैसले की समीक्षा तक करने को तैयार नहीं होता।
यह सब हारे हैं पश्चिम बंगाल चुनाव, ममता भी नहीं जीतीं, प्रशांत भूषण भी नहीं जीते, मोदी, अमित शाह, नड्डा और योगी जैसे युगपुरूष नहीं हारे बंगाल चुनाव वे सब हारे हैं जो जो जनता को कीड़े मकोड़े से इतर कुछ नहीं मानते, जो सत्ता की कुर्सी हासिल करने के लिए अपनी ही देश की जनता पर झेठे दावों और वादों का जाल फेंकते हैं। लेकिन जीत अंतत: उसी आम आदमी की होती है जिसे कान पकड़कर अपनी मर्जी से चौसर पर बिठाने का प्रयास किया जाता है। ईश्वर से प्रार्थना इन सभी को इस चुनावी महाभारत के बाद इन सभी को सद्बुद्धी और सद्गति की प्राप्ति होगी।

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