बागेश्वर…कोरोना के खौफ पर भारी पड़ी आस्था, इसी उत्तरयाणी मेले में बेगार प्रथा का अंत

बागेश्वर। कोरोना ने भले ही विगत सालों से उत्तरयाणी मेले की रौनक निगल लिया हो लेकिन बाबा बागनाथ कीनगरी बागेश्वर में लगने वाला उत्तरायणी मेला ऐतिहासिक महत्व रखता है। पुराने समय में यह मूलतः व्यापार आधारित था। दूर दराज से लोग खदरीदारी करने यहाँ आते थे।

तिब्बत से व्यापार करने वाले शौका व्यापारी भी यहाँ पहुँचते थे। मेले के दौरान सरयू तट पर बसे बागेश्वर की चहल-पहल और रौनक देखने लायक होती थी। इस दौरान उत्तराखण्ड की संस्कृति के विभिन्न रंग पूरे बागेश्वर को इन्द्रधनुषी बना देते थे। 1921 में कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू-गोमती के संगम में बहाकर बागेश्वर में राजनीतिक सक्रियता का एक दौर शुरू हुआ था।

उत्तरायणी पर बगड़ में होने वाले आयोजन कुमाऊँ-उत्तराखंड की राजनैतिक चेतना के प्रतीक बन गये थे। 14 जनवरी 1921 को मकर संक्रांति के दिन पहाड़ के दूरस्थ क्षेत्रों से लोग बागेश्वर पहुंचे। यहां उन्होंने अंग्रेज हुकुमत की ओर से जबरदस्ती थोपी गई कुली बेगार प्रथा का अंत कर दिया था। तब देश भर में इस क्रांति की खूब चर्चा हुई। माहत्मा गांधी भी इस आंदोलन से काफ़ी प्रभावित हुए। बागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी मेले का धार्मिक,व्यापारिक और राजनैतिक महत्व है।

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अंग्रेजों के शासनकाल में पहाड़ में आवागमन के साधन नहीं थे। लोग अपना सफर पैदल ही तय करते थे। अंग्रेज सरकार कुली बेगार जैसी अमानवीय व्यवस्था का सहारा लेती थी। जिसका पहाड़ के लोगों ने जमकर विरोध किया और बेगार प्रथा का अंत हुआ।

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आज कुली बेगार आंदोलन को 101वर्ष हो गये। प्रशासन ने इस बार उत्तरयाणी मेला भव्यता से मनाने की तैयारी की थी, लेकिन बढ़ते कोरोना मामलों ने मेले में प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि धार्मिक कार्य संचालित हो रहें हैं। सरयू स्नान को जिले के बाहर से भी श्रद्धालु पहुंचे।

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बागनाथ मंदिर में कल सुबह चार बजे से ही पूजा को कतार लगनी शुरू हो गई। सूरजकुंड में यज्ञोपवीत संस्कार कराने को भी भारी भीड़ उमड़ी है। इस साल भी अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चमोली,हल्द्वानी,राजस्थान और दिल्ली से तक लोग अपने बच्चों का जनेऊ संस्कार कराने यहां पहुंचे हैं। यहां कोरोना महामारी में आस्था भारी पड़ी।

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