गाँवों में विभिन्न आयोजनों में प्रकाश का सशक्त साधन होता था पैट्रोमैक्स गैस, आधुनिकता की दौड़ में प्रचलन से हुआ दूर
भुवन बिष्ट
रानीखेत (अल्मोड़ा)। समय के बदलाव के साथ साथ बहुत कुछ यादें पीछे छूट जाती हैं। आजकल विभिन्न उत्सवों, त्यौहारों विवाह समारोह आदि में बिजली की चकाचौंध देखने को मिलती है। किन्तु बीतते समय की धार में पैट्रोमैक्स गैस अब पीछे छूट गया है। पूर्व में गाँव में कोई विवाह समारोह हो अथवा कोई उत्सव या होली, दिवाली या फिर रामलीला इन सभी में रात्री में अपनी रोशनी से जगमगाहट पैदा करता था पैट्रोमैक्स। इसे आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी ले जाया जा सकता था। रात्री में प्रकाश के लिए लालटेन का भी अपना एक विशेष महत्व होता था इसके प्रकाश में पढ़ाई करनी हो अथवा बाहर का का कोई कार्य इसमें भी लालटेन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।
लालटेन के बाद पैट्रोमैक्स गैस का कुछ स्तर ऊँचा होता था। इसका प्रकाश वृहद क्षेत्र तक फैला रहता था और दूर-दूर तक दिखाई देता था। गाँवों में पैट्रोमैक्स गैस उस समय में कुछ विशेष लोगों अथवा विशेष घरों में होता था, जो इसे खरीदने और इसके रखरखाव तथा इसके संचालन में सक्षम होते थे। क्योंकि इसमें मैंडल, कैरोसिन (मिट्टी का तेल) का खर्च व अन्य रखरखाव का खर्च भी समय समय पर नितान्त आवश्यक होता था। जिन लोगों के पास भी पैट्रोमैक्स गैस होता था वह इसे सावधानी पूर्वक संभाल कर रखते थे क्योंकि यह उस समय अधिक मूल्यवान था।
पैट्रोमैक्स गैस का उपयोग विशेषकर विवाह समारोहों में किया जाता था चाहे वह दूल्हा पक्ष हो अथवा दूल्हन पक्ष। क्योंकि उस समय अधिकांशतः विवाह समारोह रात्री में ही संपन्न होते थे। इसलिए रात्री में प्रकाश की जगमगाहट के लिए पैट्रोमैक्स का अपना एक रूतबा होता था। गांव में जिसके पास भी पैट्रोमैक्स गैस होता था उन सभी घरों से पैट्रोमैक्स समारोहों वाले घरों अथवा समारोह वाले स्थानों में एकत्रित किये जाते थे। और फिर गाँव से कुछ चयनित व्यक्ति जो कि इन पैट्रोमैक्स को चलाने और इनकी उचित जानकारी रखने में सक्षम होते थे उन्हें इनकी जिम्मेदारी प्रदान की जाती थी। उन व्यक्तियों का भी उस समय एक आपरेटर की तरह रूतबा होता था।
पैट्रोमैक्स गैस की क्रियाविधि पूर्णतः वैज्ञानिक विधि ही थी क्योंकि कैरोसिन के दीये, लालटेन के बाद पैट्रोमैक्स का विकास हुआ था जो विज्ञान के बढ़ते कदम की ओर भी इशारा कर रहा था। पैट्रोमैक्स गैस की क्रियाविधि में नीचे एक तेल टैंक जिसमें कैरोसिन भरा जाता था साथ ही इसमें वायुदाब के लिए एक पंप भी होता था,तथा मिट्टी तेल भरने वाले ढक्कन पर एक घड़ी भी लगी रहती थी जो कि टैंक में हवा अधिक कम को भी बतलाती थी। पैट्रोमैक्स गैस के बीच वाले भाग में गैस का मैंडल लगा रहता था जो इसका बल्ब था और उससे ही रोशनी होती थी। इस मैंडल रोशनी वाले भाग के बाहरी क्षेत्र की ओर कांच की चिमनी लगी होती थी कुछ में जालीनुमा तो अधिकांश गैसों में कांच की सीधीप्लेटनुमा चिमनियाँ लगी रहती थी,कुछ में रंगीन कांच की चिमनी होती थी जिनसे रंगीन आकर्षक प्रकाश फैलता था।
चिमनी मैंडल को सुरक्षित भी करती थी तथा उपयोग करने वाले को गर्मी से भी बचाती थी। टैंक से एक नली ऊपरी भाग की ओर खड़ी रहती है, फ्यूल टैंक में पम्प से हवा भरने पर इसमें से कैरोसिन ऊपरी भाग में पहुंचता है और यहां पर माचिस की सहायता से इसे जलाया जाता है और फिर फ्यूल टैंक में बनने वाली गैस और कैसोसिन की प्रक्रिया से मैंडल प्रकाश करने लग जाता है। मैंडल बीच वाले भाग में एक नियत स्थान पर बांधा जाता है और यह जलने के बाद जगमगाहट फैलाता है वहीं थोड़ी सी लापरवाही में इसके फूटने का खतरा रहता है और फिर नया मैंडल बदला जाता है।
फ्यूल टैंक के पास ही इससे नियंत्रित करने के लिए एक चक्रनुमा बटन होता है जिसे घुमाकर रोशनी को कम अधिक किया जाता है। इसमें मैंडल एक बार उपयोग करने पर राख बन जाता है इसलिए हर बार नये मैंडल का भी उपयोग किया जाता था। इसका उपयोग भी बड़ी सावधानी पूर्वक ही किया जाता था इसलिए अनुभवी व्यक्तियों को ही इनके संचालन की अनुमति होती थी। रात्री में होने वाली रामलीला में भी इस पैट्रोमैक्स का बहुत बड़ा योगदान होता था। आज एलपीजी गैसों ने इनका स्थान ले लिया है। पूर्व में पैट्रोमैक्स गैस रात्री में विवाह समारोह, उत्सवों या गांव घरों में होने वाले विभिन्न आयोजनों आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।