जिन सपनों को लेकर पहाड़ी राज्य की स्थापना की गई थी, वो नहीं हुए साकार

हल्द्वानी। उत्तराखंड राज्य की स्थापना पहाड़ी जनपदों के आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन को देखते हुए की गई थी।
आर्थिक सर्वेक्षण किसी राष्ट्र व राज्य की आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। राष्ट्र, राज्य व जनपद का आर्थिक विकास उस क्षेत्र विशेष की प्रति व्यक्ति आय एवं विकास दर से आंकी जाती है। यह दस्तावेज सरकार का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, जो अर्थव्यवस्था की प्रमुख चिंताओं पर भी ध्यान केंद्रित करता है।

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के आधार पर यदि राज्य के जनपदों की प्रति व्यक्ति आय व विकास दर जनपदवार देखें तो पहाड़ी जनपद आर्थिक विकास में काफी पिछड़ गए हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2017-18 के अनुसार जनपदवार प्रति व्यक्ति आय

-रुद्रप्रयाग 83521

टेहरी 83662

उत्तरकाशी 89190

चम्पावत 90596

अल्मोड़ा 96786

बागेश्वर 100117

पिथौरागढ़ 101734

पोड़ी – 109973

नैनीताल 115117

चमोली 118448
11.यूस नगर 187313

देहरादून 195925

हरिद्वार 254050

बर्ष 2016-17 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय रुपए 161202 आंकी गई है जो कि देश की प्रति व्यक्ति आय 103870 रुपए से अधिक है। बर्ष 2016-17 में आंकड़ों के अनुसार जनपदवार प्रति व्यक्ति आय में हरिद्वार की प्रति व्यक्ति आय सर्वाधिक 254050 रुपए तथा रुद्रप्रयाग की सबसे कम 83521रुपये आंकलित की हुई है।

बर्ष 2016-17 में देश की विकास दर 7.1 प्रतिशत आंकी गई है जबकि उत्तराखंड की 6.95 प्रतिशत हुई है।

जनपदवार विश्लेषण करें तो बर्ष 2016-17 में जनपद देहरादून की विकास दर सबसे अधिक 7.6 प्रतिशत जबकि चम्पावत की सबसे कम 5.7 प्रतिशत दर्शायी गई है।आंकड़ों के मुताबिक कृषि, उद्यान, पशुपालन, वानिकी और मछली पालन क्षेत्र के विकास को इंगित करने वाले प्राथमिक क्षेत्र जो राज्य की 70 प्रतिशत आबादी की आजीविका से जुड़ा घटक है का राज्य की आर्थिकी में योगदान लगातार कम हुआ है। वर्ष 2011-12 में प्राथमिक क्षेत्र का प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 14 फीसदी तक योगदान था, वर्ष 2013 के बाद से यह सेक्टर लगातार पिछड़ रहा है। वर्ष 2016-17 में प्राथमिक क्षेत्र का प्रदेश की आर्थिकी में योगदान 11.19 फीसदी रहा, जबकि प्रदेश की अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2015-16 तक एक लाख 74 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है।

प्रदेश की अर्थव्यवस्था में सेक्टर वाइज योगदान
सेक्टर- 2011-12 – 2016-17
प्राथमिक- 14.00 – 11.19
द्वितीय- 52.13 – 50.40
तृतीय- 33.88 – 38.41

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से स्पष्ट होता है कि राज्य के पहाड़ी जनपदों का आर्थिक विकास अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ जिस मकसद से इस नये राज्य उत्तराखंड की स्थापना की गई थी।

आंकड़ों में उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय भले ही देश से ज्यादा हो लेकिन पहाड़ आज भी उस विकास को तरस रहा है जिसके लिए अलग राज्य का आंदोलन किया गया था और जिस विचार के साथ उत्तराखंड का गठन हुआ था। हकीकत यह है कि राज्य की प्रतिव्यक्ति आय तो बढ़ रही है लेकिन विकास दर में पहाड़ी जिले मैदानी जिलों से कोषों दूर हैं। मैदानी एवं पहाड़ी जनपदों के बीच विकास दर की इस खाई को पाटना होगा साथ ही उत्तराखंड को आत्मनिर्भर बनाना होगा तभी उत्तराखंड समृद्ध कहलायेगा ।

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एक रिपोर्ट –

उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था कृषि बागवानी, पशुपालन वन, खनन, विनिर्माण, निर्माण व्यापार, होटल , रैस्टोरेन्ट तथा अन्य सेवा क्षेत्रों पर निर्भर है।

उत्तराखंड के आर्थिक विकास हेतु पांच क्षेत्र निर्धारित किए गए। 1.पर्यटन 2. ऊर्जा 3. इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी I T व वायो टैक 4. औषधीय एवं सगंध उत्पादन तथा 5. कृषि एवं बागवानी।

इन्हीं पांच लक्ष्यों को आधार बनाकर इस पहाड़ी राज्य के आर्थिक विकास हेतु कई अभिनव प्रयोग किए गए तथा कई प्रोजेक्ट/ परियोजनाएं चलाई गई।

राज्य बनने के बाद जब भी नई सरकार आई आपको —
पिरूल से कोयला पिरुल से ऊर्जा,सोलर एनर्जी, जैतून का तेल, लैमन ग्रास का तेल
, जिरेनियम का तेल, जैट्रोफा बायो डीजल,लैन्टाना कुटीर उद्योग, रामबांस रेसा विकास, भीमल रेसा,बांस विकास, भांग की खेती ,चारा विकास,कुक्कुट पालन,ब्रायलर,क्कड नाथ कुक्कुट उत्पादन,ईमू ( EMU) पालन, डेरी विकास, मतस्य पालन,ट्राउट मछली पालन,अंगोरा विकास, मौन पालन, चाय बागान विकास ,रेशम उत्पादन, मशरूम उत्पादन, फूलों की खेती, सेब मिशन योजना, जड़ी बूटी विकास,फूड प्रोसेसिंग यूनिटों की स्थापना,एग्रीविजनैस ग्रोथसेन्टर, चक्कबन्दी,जैविक खेती , पारम्परिक खेती, Sustainable development, निरंतर विकास,वायो डाइवर्सिटी, जीरो बजट खेती , संरक्षित खेती ,
मुख्यमंत्री संरक्षित उद्यान विकास योजना , मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना , हाइड्रो फोनिक ( पानी में खेती) ,टिशु कल्चर ,बीज ग्राम, चारधाम यात्रा में जैविक प्रसाद वितरण योजना,अटल आदर्श ग्राम,चालखाल ,रेनवाटर हार्वेस्टिग,जल संरक्षण व जल संवर्धन ,जैविक प्रदेश , आयुष प्रदेश, ऊर्जा प्रदैश,पर्यटन प्रदेश आदि सुने सुनाए शब्द सुनाई देंगे।

योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु- विदेश भ्रमण , प्रचार प्रसार-विज्ञापनौं पोस्टरौं होर्डिंग व सड़कों के किनारे बने पिलरौं पर लिख कर खूब किया गया। Laminated साहित्य भी खूब छपे 3/5 स्टार वाले होटलौं में जागरूकता व विकास गोष्ठियों , Buyers & Seller Meet, प्रशिक्षकों का रशिक्षण /लाभार्थियों का प्रशिक्षण, मेले व सम्मेलनों का आयोजन किया गया साथ ही योजनाओं के अनुसार विधिवत मशीनें व उपकरणों ( जो बाद में सड़कों के किनारे या कमरों में जंक खाते हुए दिखाई देते हैं) तथा अन्य निवेशौ की खरीद फरोक्त भी खूब हुई । योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी आम जन जिनके लिए योजनाएं बनाई गई है अपने आप को विकास की दौड़ में वहीं खड़ा पाता है जहां पहले था।

काल्पनिक/फर्जी आंकड़े दर्शा कर राज्य को कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय एवार्ड भी मिले हैं साथ ही राज्य में फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर अच्छे विकास कार्य करने पर कई गैर सरकारी संगठनों (NGO) व उनका संचालन कर रहे महानुभावों को भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है।

इस सब के बावजूद 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के 16793 गांवों में से तीन हजार से अधिक गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं बहुत से गांव में गिनती के ही लोग रह रहे हैं। ढाइ लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए हैं देख रेख के अभाव में ये घर खण्डहरों में तब्दील हो रहे हैं।

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पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन के कई कारण हैं किन्तु क्षेत्र के लोगों के आर्थिक विकास/ पलायन रोकने के लिए बनी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार , जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा के कारगर उपाय न होना लोगों के पलायन के मुख्य कारण है।

विभागों द्वारा विकास के नाम पर जिला योजना, राज्य सेक्टर की योजना, केंद्र पोषित योजना,वाह्य सहायतित योजनाओं में हजारों करोड़ों रुपए का बजट प्रति बर्ष विकास योजनाओं पर खर्च किया जा रहा है। आम जनता का विकास तो नहीं दिखाई देता हां नौकरशाह सप्लायरों (दलालों) व गैर सरकारी संगठनों के संस्थापकौं/ संचालकों का खूब आर्थिक विकास हुआ।

जब तक योजनाओं में धन राशि आवंटित होती रहती है तब तक योजनाओं का काफी शोर गुल दिखाई/सुनाई देता है योजना बन्द होते ही बाद में योजनाओं में क्रय की गई मशीनों के अवशेष वह योजना के बोर्ड ही दिखाई देते हैं।

कृषकों द्वारा कुछ जनपदों में जिला अधिकारी व मुख्य विकास अधिकारियों की सक्रियता के कारण विकास मौडल स्थापित किए हैं ऐसे मौडल पहाड़ी जनपदों में 5 से 10 प्रतिशत ही है योजनाओं के मूल्यांकन में इन्हीं को दिखा कर विभाग वाले अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं।

राज्य बनने पर आश जगी थी कि विकास योजनायें राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बनेंगी किन्तु ऐसा नहीं हुआ। योजनाओं में कमी नहीं है कमी है योजनाओं में पारदर्शी ढंग से क्रियान्वयन की। योजनाएं नई नहीं है राज्य में हर दस पन्द्रह सालों बाद पुरानी योजनाओं को चमत्कार के रूप में दिखा कर फिर से दोहराया जाता है। किसी ने कभी भी इन योजनाओं का इतिहास जानने की कोशिश नहीं की कि पहले इन योजनाओं से अपेक्षित लाभ क्यों नहीं मिला।

सरकारै नई आती है किन्तु उत्तराखंड के अधिकतर तथा कथित बुद्धि जीवी सलाहकार पुराने ही होते हैं। कोई भी सरकार आये ये तथा कथित बुद्धिजीवी अपनी जगह नई सरकार में बना ही लेते हैं तथा इन बुद्धिजीवियों की सोच यहीं तक है ये बुद्धिजीवी अपने विषय को छोड़ कर अन्य सभी विषयों की जानकारी सरकार को देते हैं। यदि इन बुद्धिजीवियों का पुराना इतिहास याने पढ़ाई-लिखाई टटोली जाय तो आप पाएंगे जिस बिषय पर ये सरकार को सलाह देते हैं वह इनका पढ़ाई लिखाई का विषय था ही नहीं

विभाग योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कार्ययोजना तैयार करता है कार्ययोजना में उन्हीं मदों में अधिक धनराशि रखी जाती है जिसमें आसानी से संगठित /संस्थागत भ्रष्टाचार किया जा सके या कहैं डाका डाला जा सके।

योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार की कई बार शिकायतें हुई जांच भी हुई कई दोषी भी पाये गये,
जैट्रोफा बायो फ्यूल घोटाला, ढैंचा बीज घोटाला , लहसुन बीज व अदरक बीज घोटाला, पौली हाउस घोटाला, मटेला कोल्ड स्टोरेज घोटाला आदि कई चर्चित घोटाले उजागर हुये किन्तु प्रभावी दणडात्मक कार्यवाही किसी पर नहीं हुई सभी को सम्मान पूर्वक बरी कर दिया गया।

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यदि विभाग को/शासन को सीधे कोई सुझाव/शिकायत भेजी जाती है तो कोई जवाब नहीं मिलता या शपथ पत्र पर शिकायतें भेजने को लिखा जाता है । प्रधानमंत्री / मुख्यमंत्री के समाधान पोर्टल पर सूझाव शिकायत अपलोड करने पर शिकायत शासन से संबंधित विभाग के निदेशक को जाती है वहां से जिला स्तरीय अधिकारियों को तथा बाद में फील्ड स्टाफ को। विभागों से जवाब मिलता है कि कहीं से कोई लिखित शिकायत कार्यालय में दर्ज नहीं है सभी योजनाएं पारदर्शी ठंग से चल रही है।

उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर होता है कि विभाग को कितना बजट आवंटित हुआ और अब तक कितना खर्च हुआ।राज्य में कोई ऐसा सक्षम और ईमानदार सिस्टम नहीं दिखाई देता जो धरातल पर योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधार ला सके।

योजनाओं में भ्रष्टाचार न पहले की सरकारौ को दिखाई दिया और न ही वर्तमान भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस कहने वाली सरकार को। भारतीय जनता पार्टी शासित सभी राज्यों यथा हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि में कृषकों को योजनाओं में मिलने वाला अनुदान डी बी टी योजना के माध्यम से बर्ष 2017 से हो रहा है । डी० बी० टी० के माध्यम से योजना का सीधा लाभ योजना से जुड़े लाभार्थी को होता है। DBT योजना का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें किसी तरह के धोखाधड़ी की गुंजाईश नहीं रहती है। क्योंकि यहां लाभार्थी के खाते में सरकार सीधे तौर पर योजनाओं में मिलने वाला अनुदान के पैसे ट्रांसफर करती है । इस प्रकार सरकारी योजना का पूरा फायदा लाभा​र्थी को मिल जाता है। डी० बी० टी ० से जहां एक तरफ नकद राशि सीधे लाभार्थी के खाते में जाती है वहीं गड़बड़ियों पर अंकुश लगता है और दक्षता बढ़ती है।

उत्तराखंड में योजनाओं में आपूर्ति होने वाले अधिकतर निवेशों की खरीद विभाग ही करते हैं। कार्यदाई विभाग टेन्डर प्रक्रिया दिखाकर कर निम्न स्तर का सामना उच्च दामों में क्रय कर योजनाओं में मुफ्त में या कम कीमत पर बांटते हैं। राज्य में अभी तक कृषकों को योजनाओं में मिलने वाला अनुदान डीबीटी से भुगतान नहीं किया जाता।

योजनाओं में जबतक विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार सुधार नहीं किया जाता व क्रियान्वयन में पारदर्शिता नहीं लाई जाती तथा जंगली जानवरों से फसलों के सुरक्षा के प्रभावी उपाय नहीं किए जाते हैं राज्य के पहाड़ी जनपद आर्थिक विकास में पिछड़ते ही रहेंगे। मैदानी एवं पहाड़ी जनपदों के बीच विकास दर की इस खाई को पाटना होगा तभी उत्तराखंड समृद्ध कहलायेगा।

डा० राजेंद्र कुकसाल
लेखक- कृषि एवं उद्यान विशेषज्ञ।

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