उत्तराखंड… तस्वीर का दूसरा रूख : जो भी हो जनता के ‘हितैषी’ नेता हो गए हैं नंगे, अब जनता जनार्दन को करना है फैसला

तेजपाल नेगी
हल्द्वानी।
इस विधानसभा चुनाव में एक अच्छी बात हुई कि हमारे तथाकथित प्रतिनिधियों के बदन पर पड़ा पार्टी रूपी ओवरकोट पूरी तरह से उतर गया। वे नेता जो कल तक अपनी  पार्टी की हर गलत नीति  का अनुशासित सिपाही होने का तर्क देकर बचाव करते दिखाई पड़ते थे आज अपनी ही पार्टी को कोसने से पीछे नहीं हट रहे हैं। पूरी तरह से आम रूप में आ खड़े हुए इन नेताओं पर जनता कैसे विश्वास करें यह उसे तय करना है। कल तक जब इन नेताओं की पार्टियां जनता की जान से खेल रही थीं तब ये हमारे प्रतिनिधि मूक दर्शक बने हुए थे लेकिन अज जब बात इनके टिकट पर आई तो ये पार्टी से इस्तीफा देकर उतर गए विद्रोह के मैदान में।

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बात पूरे उत्तराखंड की करें या पूरे देश की, सब जगह कमोबेश एक सी ही स्थिति है। मगर यहां हमें उत्तराखंड की बात करना ज्यादा सम सामायिक लग रहा है। भाजपा खेमे में शामिल  आम जनता के प्रतिनिधि उस वक्त भी चुप थे जब प्रधानमंत्री ने एक रात अचानक टीवी पर नोटबंदी का ऐलान कर दिया था।  तब मोदी के इस फैसले की वकालत करते हुए हमारे नेताओं ने आतंकवाद, देशद्रोह और कालाधन  और ऐसे ही न जाने  कितने जुमले ढूंढ निकाले थे। इसके बाद जब कोरोना ने देश पर हमला बोला तो यही नेता थे जो मोदी के आहृवान पर थाली व ताली पीट कर कोरोना को भगाने के लिए सड़कों पर निकल पड़े थे। इसके बाद जब उनके करतबों से उत्साहित मोदी ने एक ही रात में लॉक डाउन का ऐलान किया तो प्रवासियों की हालत  पर हमारे इन नेताओं को  रहम नहीं आया बल्कि ये तख्ती और बैनर लेकर रेलवे स्टेशनों पर उनके स्वागत के लिए पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो गए ताकि पार्टी के शीर्षस्थ नेता की घोषणा को सही ठहराया जा सके। किसान आंदोलन में अपने ही देश के किसानों को आतंकवादी कहना भी हमारे इन नेताओं को बुरा नहीं लगा। इस आंदोलन में उत्तराखंड के तराई के किसानों ने भी भागीदारी की थी। लेकिन जब पीएम लोकसभा में इन्ही किसानों को आंदोलनजीवी बता रहे थे तब हमारे नेताओं की आखों  के डोरे लाल नहीं हुए। जब सरकारी की नीतियों की वजह से पेट्रोल व डीजल के दाम ऐतिहासिक रूप से  उछाल मार रहे थे, तब अपने आप को जनता खैरख्वाह कहने वाले हमारे नेताओं की जुबान सिली रही।

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सरसों का तेल जब रसोई का बजट बिगाड़ रहा था तब इन नेताओं को वह सरकार का आशीर्वाद नजर आ रहा था। रसोई गैस के दाम बढ़े तो हमारे नेता सड़कों के किनारे ‘धन्यवाद मोदी जी’ के बोर्ड स्थापित करवाने में लगे थे। सब्सिडी जब लोगों के खातों में आनी बंद हुई तो हमारे नेता इसे सरकार की नई पालिसी बता रहे थे। लोग जब प्राइवेटाइजेशन की वजह से बेरोजगार हो रहे थे तब हमारे नेता देश को विश्व गुरू बनाने का सब्जबाग उन्हीं लोगों को दिखा रहे थे जिनके सामने दो जून की रोटी का सवाल आ खड़ा हुआ था। लोग स्वास्थ्य सुविधाओं  के अभाव में तड़प तड़प कर दम तोड़ रहे थे। तब हमारे किसी भी सत्ताधारी नेता ने सरकार के सामने व्यवस्थाएं दुरूस्त  करने की मांग नहीं उठाई। उल्टे हमारे नेता जनता को ही समझ रहे थे कि महामारी में ऐसा ही होता है।
ये तो चंद बड़े उदाहरण है जब जनता के नेता जनता के साथ खड़े न होकर सरकार के पाले में खड़े दिखे। ऐसे ही कितने और उदाहरण भी हैं जब जनता की आवाज को दबा कर नेताओं ने अपने नेताओं की चापलूसी का कोई अवसर नहीं छोड़ा।

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लेकिन अब जब उन्हें पार्टी से विधानसभा का टिकट नहीं दिया तो वे मगरमच्छी आंसू बहाते हुए पार्टी को छोड़ रहे हैं, पार्टी के आलाकमान का विरोध कर रहे हैं। अब पूरी तरह से निर्वस्त्र जनता की अदालत में खड़े इन नेताओं के साथ जनता को क्या सलूक करना है यह उसे ही तय करना होगा। वर्ना भाजपा हो या कांग्रेस सरकार बनने के बाद सभी नेता इसी तरह का व्यवहार करते हैं। तब जनता की अपेक्षाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं तो फिर उनकी अपेक्षाएं जनता के लिए किसी दो कौड़ी की नहीं होनी चाहिए।

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