सत्यमेव जयते विशेष… तो यह रही सच्चाई : आखिर हमारा प्रदीप दौड़ क्यों रहा है

तेजपाल नेगी
हल्द्वानी।
पिछले एक सप्ताह से पूरे देश के सोशल मीडिया व अन्य मीडिया प्लेटफार्म्स पर संसेशन बने अल्मोड़ा के प्रदीप मेहरा का नाम इन दिनों छोटे बड़े हर व्यक्ति की जुबान पर है। प्रदीप का आधी रात को दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाला वीडियो हर अभिभावक के सपनों में आने लगा है। प्रदीप अब सड़कों से हटकर टीवी चैनलों के स्टूडियो पर दौड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। कोई प्रदीप का साक्षात्कार ले रहा है तो कोई उसके घर पहुंच कर उसके परिवार के हालात पाठकों व दर्शकों के सामने रख रहा है। यानी प्रदीप की दौड़ को लेकर मीडिया से लेकर राजनैतिक व प्रशासनिक हल्कों में भी भागमभाग की स्थिति है। इन सभी खबरों को देखकर एक बड़ा सवाल जो कई तहों में जाकर दब गया है उस पर कोई नजर नहीं डाल रहा…और वह बड़ा सवाल है कि आखिर प्रदीप दौड़ क्यों रहा है?


इस सवाल का साधारण से और संक्षिप्त जवाब है …आर्मी में भर्ती होने के लिए। लेकिन आपका यह जवाब सही नहीं है। इस सवाल का जवाब ढूंढना है तो न सिर्फ प्रदीप के बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के सड़क से दूर बसे उन गांवों की धूल फांकनी होगी। जो सड़क, चिकित्सा, शिक्षा, इंटरनेट, बिजली, पानी और बेरोजगारी के दानव से पिछले सात दशकों से जूझ रहे हैं।

यहां के युवा जिंदगी को बदलने की कोशिश में लगातार अपने गांवों से हजारों मील दूर महानगरों की आपाधापी में दौड़ रहे हैं। बस उन पर इस प्रदीप की तरह किसी विनोद कापड़ी की नजर नहीं पड़ी। या फिर न जाने कितने विनोद कापड़ी, उन प्रदीपों पर शब्द चित्र गढ़ते आए हैं लेकिन उनके शब्दचित्रों को देखने वाली आखें ही इन प्रदीप मेहराओं को पहचान नहीं सकी।


दरअसल प्रदीप तो उत्तराखंड के इन दूर दराज के गांवों की युवा पीढ़ी का एक प्रतिनिधि है। जिसने सीधे देश की राजधानी दिल्ली में दस्तक दी है, लेकिन मोटी चमड़ी वाले हमारे नीति निर्धारकों और जनता की आवाज को पेज थ्री का मसाला बना देने वाले टीवी चैनलों ने साजिशन अपने उथले आश्वासनों और सवालों से दबा सा दिया है। यहां सवाल एक प्रदीप मेहरा का नहीं है, सवाल उन हजारों प्रदीपों को है जिनके पास दौड़ने के लिए दिल्ली की तरह सपाट और चकाचौंध से भरी सड़कें नहीं है।


उत्तराखंड में अनगिनत ऐसे गांव हैं जहां पहुंचने के लिए अभी भी कई कई किलोमीटर का फासला पैदल ही तय करना पड़ता है। हम और आप पत्रकारों को प्रदीप के घर जाने के लिए उबड़ खाबड़ पगडंडी से चलते हुए देखते हुए उफ…उफ कर रहे हैं। जरा सोचिए यहां के नौनिहाल हर रोज सुबह पढ़ने के लिए स्कूल जाने और वापस घर आने के लिए इन रास्तों पर नंगे पैर कितनी दुश्वारियां झेलते होंगे। प्रदीप भी ऐसे ही किसी स्कूल में पड़ा है।

यह भी पढ़ें 👉  ब्रेकिंग न्यूज : हल्द्वानी के हरिपुर नायक निवासी फैक्ट्री कर्मी की काशीपुर में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत


इन गांवों से महिलाओं और बुजुर्गों को बीमारी गंभीर होने तक इसलिए घर में रोककर रखा जाता है क्योंकि उनकी पालकी को कंधा देने के लिए चार लोग भी नहीं बचे हैं। ये सभी युवा किसी न किसी महानगर में जिदंगी की दौड़ पूरी कर रहे हैं।

यह भी पढ़ें 👉  नगर में हर चार किलोमीटर में खुल रही शराब की दुकानें, प्रदेश सरकार क्यों बनी है मौन बडा सवाल - वैभव


इन गांवों में महिलाएं सूरज निकलने से पहले बिस्तर छोड़ देती हैं और रात ढलने के बाद उन्हें फिर बिस्तर नसीब होता है। उनके पति कहीं शहर में प्रदीप जैसी ही दौड़ लगा रहे हैं। घर के बुजुर्गों से मिलने वाली सामाजिक शिक्षा की यहां के बच्चों की एक मात्र जमा पूंजी है। जो वीडियो में प्रदीप के चेहरे और बातों में साफ झलक रही थी।


प्रदीप खुश किस्मत था जो अपने बड़े भाई के साथ दिल्ली चला गया। बहुत से ऐसे युवा हैं जो उधमसिंह नगर और हरिद्वार के सिडकुल से आगे नहीं जा पा रहे हैं। प्रदीप की ही तरह उनके माता पिता भी घर पर बीमार पड़े हैं। रात को काम से फारिग होकर जब वे सोने जाते हैं तो अपनी लाचारी पर आंसू अवश्य बहाते हैं।


दरअसल हमारे प्रदेश के पहाड़ी गांवों में आज भी रोजगार के तीन बड़े साधन हैं एक है, एक है चौपहिया वाहन लेकर उसे गांव में ही यात्री वाहन के रूप में चलाना, दूसरा नरेगा और तीसरा है सेना भी भर्ती होकर परिवार की किस्मत बदलना। जी हां हमारे यहां से सेना में भर्ती हुआ सिपाही भी अपने वेतन से अपने परिवार की किस्मत बदल देता है। अब आप ही बताइये तीन रोजगार के साधनों में सरकारी स्कूल से हाईस्कूल—इंटर करने वाले युवा के लिए सबसे ज्यदा आकर्षक रोजगार कौन सा होगा। बस इसीलिए प्रदीप दौड़ रहा था।

यह भी पढ़ें 👉  हल्द्वानी ब्रेकिंग : युवक की संदिग्ध हालात में मौत


ईश्वर करे कि विनोद कापड़ी वाले प्रदीप की आवाज अपने सही मायनों के साथ हमारे नीति निर्धारकों के कानों में भी जाए और पहाड़ों के असल विकास की योजनाओं के लिए वे समय निकाल सकेंं। वर्ना कोरोना के बहाने मुफ्त का राशन, भांग के पत्तों से बनने वाले काले सोने की तस्करी और गांव गांव में खुल चुकी देसी और विदेशी शराब की दुकानों से तो पहाड़ पाताल में ही जाएंगे।


अब समय आह और वाह करने का नहीं है। समय तेजी से गुजर रहा है और युवाओं की पहाड़ों से महानगरों की दौड़ शुरू तेज होती जा रही है। इससे पहले कि प्रदीप की यह वीडियो साल की चर्चित वीडियो में शुमार हो और धीरे धीरे लोग उसे भूल जाएं, हमारे प्रदेश की दूसरी बार की नई नवेली सरकार को पहाड़ की जवानी के लिए ऐसा कुछ करना होगा कि प्रदीप की यह दौड़ हमेशा के लिए अविस्मरणीय बन जाए, हम कह सकें कि प्रदीप की दौड़ युवाओं के लिए पहाड़ से मैदान की दौड़ का आखिरी मील पत्थर बन गई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *