उत्तराखंड… अजीब दास्‍तां है ये : तो क्या हमने विधायक नहीं कठपुतलियों को चुना है

अनिल सती
देहरादून।
किसी प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अगर प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद भी किसी दल को अपना नेता चुनने में 11 दिन लग जाएं तो इससे बड़ा दुर्भाग्‍य क्‍या होगा। उस प्रदेश की जनता का, इससे एक बात तो साफ हो गयी है कि प्रदेश के विधायकों में दम नहीं है। ठीक यही स्थिति उत्तराखंड की भी है जहां पिछले 11 दिनों से सिर्फ एक ही मुद्दा सुर्खियों में है कि आखिर कौन बनेगा उत्तराखंड का मुख्यमंत्री? हालत ऐसी हो गई है कि नेता देहरादून से दिल्ली और दिल्ली से देहरादून की सड़क नापने में लगे हैं। उत्तराखंड की पूरी राजनीति को केंद्र ने एक फुटबॉल की तरह बना दिया है जिसे उत्तराखंड की जनता हतप्रभ होकर देखने को मजबूर है।


उत्तराखंड में भाजपा ने 47 सीटें जीतकर सत्ता की पारी को दोहराने का कीर्तिमान बनाया लेकिन मतगणना के बाद से ही जो कुछ उत्तराखंड में नजर आ रहा है वह काफी हैरान कर देने वाला है। 47 विधायक जीतने के बावजूद इन जीते हुए विधायकों में वह दम नहीं है कि वह एकजुट होकर अपना नेता चुन सके और दिल्ली को फरमान भेज सकें कि “यह रहा हमारा नेता और यही बनेगा सीएम”। असल में यहां यह सब संभव भी नहीं है क्योंकि जिस प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने के लिए निर्वाचित विधायकों के अलावा सांसद और पार्टी के दूसरे पदाधिकारी भी दौड़ में हो वहां एकजुटता आखिर कैसे नजर आ सकती है? इस प्रदेश का दुर्भाग्‍य यहीं रहा है कि यहां का सीएम दिल्‍ली दरबार में तय होता है।

इस समय हालात यह है कि उत्तराखंड की जनता अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है कि इतना प्रचंड बहुमत देने के बाद भी क्या यही सब देखना पड़ेगा? अभी मुख्यमंत्री को लेकर इतनी कसमकस और खींचातानी है तो क्या चुना गया मुख्यमंत्री स्थाई सरकार दे पाएगा? ऐसे कई सवाल हैं जो वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उत्तराखंड की जनता के जेहन में उठने लगे हैं और एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता की संभावना दिखने लगी हैं। मतगणना के बाद से ही उत्तराखंड के तमाम नेता दिल्ली के चक्कर काट रहे हैं लेकिन दिल्ली दरबार है कि कोई समाधान निकालने को तैयार नहीं।


काफी माथापच्ची के बाद अब सुना है कि 21 मार्च को विधायकों की बैठक होगी और मुख्यमंत्री तय कर लिया जाएगा। पहले यह तिथि 20 मार्च थी जो 1 दिन आगे बढ़ा दी गई। यानी कि दिल्ली से लेकर उत्तराखंड तक कुछ भी स्थिर नहीं है तो सरकार कैसे स्थिर बनेगी यह खुद में एक सोचने वाली बात है? यह तो साबित हो चुका है कि भाजपा के बैनर पर जीते विधायक कहीं ना कहीं मोदी कृपा पर सीटें निकालने में कामयाब हुए हैं और यही कारण है कि वह अपनी बात रख पाने में खुद को सक्षम नहीं पा रहे हैं। अन्यथा क्या कारण है कि 47 विधायक होने के बावजूद उत्तराखंड के विधायक अपने नेता का नाम एकजुटता के साथ केंद्रीय हाईकमान को देने में असमर्थ हैं?


उत्तराखंड की जनता भी अब इस रोज-रोज की नौटंकी बाजी से उकता चुकी है। जनता देखना चाहती है कि आखिर उत्तराखंड की कमान कौन संभालने वाला है? दिल्ली से देहरादून का अजीबोगरीब खेल अब बंद होना चाहिए। केंद्रीय हाईकमान को भी चाहिए कि वह उत्तराखंड की राजनीति को यही के हाल पर छोड़ दें और रिमोट कंट्रोल की तरह उत्तराखंड की सरकार को संचालित ना करें।

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उत्तर प्रदेश की तरह ही उत्तराखंड में भी भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया है लेकिन यहां के नेताओं की तरह यूपी के नेता दिल्ली की परिक्रमा करते नजर नहीं आ रहे हैं। हालांकि विधायक दल की बैठक अभी उत्तर प्रदेश में भी नहीं हुई है लेकिन सीएम का चेहरा स्पष्ट है। उत्तराखंड में स्थिति बिल्कुल उलट है यहां विधायकों में एकजुटता नहीं तो वही सीएम बनने की महत्वकांक्षा परवान चढ़कर बोल रही हैं। यही कारण है कि पिछले 11 दिन से असमंजस की स्थिति बनी हुई है और प्रचंड बहुमत के बावजूद भी मुख्यमंत्री के लिए कोई चेहरा अभी तक तलाशा नहीं जा सका है।

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